छत्तीसगढ़

रिश्तों के बिना जीवन रेगिस्तान के समान है : प्रवीण ऋषि

रायपुर। कर्म की प्रकृति तय कर सकते हो, उसकी स्थिति, प्रदेश, उसका रस तय कर सकते हो। कर्म कब उदय में आएगा, ये कर्म बांधते समय तय हो जाता है। इस कर्म के साथ कौन सी प्रकृति बंधेगी यह भी तय हो जाता है। लेकिन रिश्ते के लिए न तो कोई प्रकृति तय होती है, और न कोई बंद तय होता है।  रिश्ते में केवल दो गणित चलते हैं, रिश्ता मैत्री का है या दुश्मनी का। वो कब काम करेगा, नहीं कह सकते। कितने समय के बाद उस रिश्ते का फल मिलेगा, नहीं कह सकते।

भगवान महावीर की गाथा से कर्म, धर्म और रिश्ता इन तीनो से मिलकर जीवन कैसे चलता है, किन किन मोड़ों से गुजरता है, यह उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि लालगंगा पटवा भवन में उपस्थित श्रद्धालुओं को समझा रहे हैं। रविवार को प्रवीण ऋषि ने कहा कि बिना रिश्ते के जीवन रेगिस्तान के समान है। जब आपको लगे कि आपकी बात समझी नहीं जा रही है तब समझ लेना आप रिश्तों के रेगिस्तान में पहुंच गए हो। रेगिस्तान का कण दूसरे कण के साथ जुड़कर यात्रा नहीं करता है। वहीं नदी का कण अर्थात पानी की बूँद दूसरी बूँद के साथ जुड़कर यात्रा करती है। रिश्तों के लिए जुड़ना जरुरी है। जुड़ोगे तो संपर्क होगा। कर्म अकेला भुगत सकता है, रिश्ते अकेला बनता नहीं है, और अकेला भोगता नहीं है। उक्ताशय की जानकारी रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने दी।

ललित पटवा ने जानकारी देते हुए बताया कि रिश्तों की अहमियत को समझाने के लिए  प्रवीण ऋषि कई शिविर आयोजित करते है। ऐसा ही एक शिविर रविवार सुबह 8 बजे से शुरू हुआ। यह शिविर दांपत्य जीवन को सुखमय बनाने की सीढ़ी है। अर्हम ब्लिसफुल कपल शिविर में  बताया जाता है कि कैसे रिश्ता श्रद्धामय बने और वाणी मधुर हो। दांपत्य जीवन की खूबसूरती बनी रहे, पति-पत्नी एक दूसरे को श्रद्धा से देखें और यह रिश्ता सतरंगी बना रहे। प्रवीण ऋषि कहते हैं कि जीवन में कभी कदम डगमगायें तो संभालने वाला व्यक्ति सहचर हो। अर्हम ब्लिसफुल कपल एक साधना है, पवित्र रिश्ते की सुंदरतम यात्रा है। गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है। वहीं नवकार कलश अनुष्ठान 1 और 2 अक्टूबर को होने जा रहा है।

धर्मसभा में महावीर गाथा को आगे बढ़ाते हुए प्रवीण ऋषि ने कहा कि त्रिपुष्ठ वासुदेव बन गए हैं। लेकिन अंदर की आग शांत नहीं हुई है। जिसे लेकर यह आग थी, वो तो चला गया, लेकिन प्रतिशोध की ज्वाला शांत नहीं हुई है। लेकिन प्रतिशोध की यात्रा है, जो शुरू एक से होती है, लेकिन एक पर पूरी नहीं होती है। प्रतिशोध की यात्रा थी विशाख नंदी के साथ, फिर अश्वग्रीव के साथ। लेकिन प्रतिशोध की ज्वाला को और अग्नि मिल गई थी। पिछले जन्म की प्रतिशोध की यात्रा भयंकर बनती है। व्यक्ति कभी चैन से सोता नहीं है। बदले की धुन में वो अपना ही खून जलाता रहता है।

त्रिपुष्ठ की यात्रा प्रतिशोध से शुरू हुई थी। दुश्मन कभी भी प्रतिशोध की आग का शिकार नहीं होता है। त्रिपुष्ठ की आग का शिकार उसके स्वजन भुगत रहे हैं। अश्वग्रीव ने संगीत सभा को बंद करवा दिया था। उसके मरने के बाद त्रिपुष्ठ ने फिर से शुरू कर दी। उसे नृत्य-संगीत का शौक था। उसकी कई रानी थीं, जिसमे से एक थी विजयवती। वह भी संगीत का शौक था। एक बार कलाकार की मंडली दरबार में पहुंची। दिन में राजा ने देखा, तो सोचा रात्रि में रानी के साथ बैठ कर देखूँगा। रात में रानी का सिंहासन खाली था। त्रिपुष्ठ ने संदेशा भेजा, तो जवाब आया कि विजयवती की तबियत ख़राब है। लेकिन प्रतिशोध लेने वाले के पास दूसरे का दर्द समझने का दिल नहीं होता है। त्रिपुष्ठ को दूसरों का दर्द समझ नहीं आता है। और जिसे दूसरे का दर्द नहीं समझ सकता है वह धर्म नहीं कर सकता है। उसने सोचा कि मैंने बुलाया और वह नहीं आ सकती? दुबारा संदेशा भेजा, कहा बुखार है। जब हम किसी की मज़बूरी नहीं समझते है तो हम अपने अंदर शैतान का बीज बोते हैं।

त्रिपुष्ठ ने कहा कैसे नहीं आ सकती, उठा के लाओ। दासियां पहुंची और विनती करने लगीं, कहा खाली हाथ लौटे तो कल का सूर्य नहीं देख पाएंगे। त्रिपुष्ठ के सामने छोटे से अपराध की भी भयंकर सजा देता था। उसके सामने गलती की केवल एक सजा थी, मौत। सभी को पता था। रानी ने जब यह देखा तो उसने सोचा कि इन बेकसूरों की मौत का कारण मैं क्यों बनूं। वह उठी और सभा की ओर चल पड़ी। ठण्ड का महीना था, चलते नहीं बन रहा था विजयवती को, लेकिन वह त्रिपुष्ठ के सामने पहुंची और कहा बैठ न पाउंगी। उपाध्याय प्रवर ने  कहा कि काश किसी का दर्द सुनने के लिए किसी के पास कान होते हो शायद नर्क के द्वार नहीं खुलते। लेकिन त्रिपुष्ठ के पास वे कान नहीं हैं। उसने कहा कि मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया, तुझे ठण्ड लग रही है? उसने दसियों को आदेश दिया कि ठन्डे पानी से भरे घड़े लाओ। और एक-एक कर के वे घड़े विजयवती के सर पर फूटते रहे। विजयवती जिससे प्रीत करती थी, वही उसपर अत्याचार कर रहा था। उसने नफ़रत भरी आंखों से त्रिपुष्ठ की ओर देखा, और आंख बंद कर ली। विजयवती ने नफरत की आंख लेकर अपने प्राण त्याग दिए।

प्रवीण ऋषि ने कहा कि रानी के जाने के बाद त्रिपुष्ठ का जीवन सूना हो गया। नींद नहीं आती थी रात में। कई वैद्य आये, कई दवाई खाई, कोई फायदा नहीं हुआ। जब भी आंख बंद करता था तो विजयवती की नफरत भरी आंख नजर आती थी। एक नया उपाय किया गया। उसे संगीत-नृत्य का शौक तो था, रात भर कार्यक्रम चलता था। तब तक चलता थे जब तक उसे नींद नहीं आ जाए। शायपाल नियुक्त किया गया था। त्रिपुष्ठ जब सो जाता था तो शायपाल कार्यक्रम रोकने का इशारा कर देता था। लेकिन एक दिन शायपाल संगीत में इस कदर खो गया कि उसे ध्यान ही नहीं रहा कि त्रिपुष्ठ सो गया है और कार्यक्रम को बंद करना है। कार्यक्रम चलता रहा। त्रिपुष्ठ की नींद टूटी, उसने देखा कि शायपाल संगीत में डूबा हुआ है। वह गुस्से से चिल्लाया, संगीत बंद हो गया।

त्रिपुष्ठ को देख शायपाल डर के मारे कांपने लगा। गुस्से से तमतमाया चेहरा देख उसके पसीने छूटने लगे। त्रिपुष्ठ ने कहा कि तुझे किस काम के लिए रखा था, और तो क्या काम कर रहा है? तुझे संगीत का मजा लेना है? अभी तुझे मजा चखाता हूँ। त्रिपुष्ठ ने मौत के ऐसे-ऐसे इंतजाम किए थे कि उसे देख खुद मौत भी सिहर जाए। उसने पिघला सीसा मंगवाया। शायपाल विनती करने लगा, गिड़गिड़ाने लगा, लेकिन त्रिपुष्ठ का दिल नहीं पिघला। उसने सैनिकों को आदेश दिया, इसके हाथ-पैर पकड़ो। और शायपाल के कान में पिघला सीसा डाला गया। वह दर्द से चिल्लाने रहा था और त्रिपुष्ठ उसे देख खुश हो रहा था। त्रिपुष्ठ ने अश्वग्रीव का वध किया था लेकिन नर्क का आयुष नहीं बना था। लेकिन उसने शायपाल को मारा तो नर्क का आयुष बंध गया।

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