खुदको श्रीराम के चरणों पर समर्पित कर दें, जीवन सफल हो जाएगा : ओमानंद महाराज

रायपुर। राजधानी के संतोषीनगर में 9 दिवसीय श्रीरामकथा के चौथे दिन कथाकार ओमानंद महाराज ने राम नाम की महिमा का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि राम नाम इतना मधुर है कि इसे जपने से काम, क्रोध, मद सब नष्ट हो जाता है। राम नाम में इतनी मधुरता है कि मात्र उनका नाम लेने से जीवन मधुर हो जाता है। आप खुद को श्रीराम के चरणों में समर्पित कर दें, जीवन सफल हो जाएगा।
ओमानंद महाराज ने कहा कि आप कितने भी शक्तिशाली हों, बलशाली हों, अपनी समस्त शक्ति, बल श्रीराम के चरणों में समर्पित कर दें, जैसे महर्षि विश्वामित्र ने किया। उन्होंने अपनी सारी विद्या, ज्ञान, अस्त्र-शस्त्र, शास्त्र श्रीराम के चरणों में समर्पित कर दिए। महर्षि विश्वामित्र अपने आश्रम में यज्ञ की तैयारी कर रहे थे। लेकिन वहां दो राक्षस मारीच और सुबाहु उनके यज्ञ में विध्न डालते थे। महर्षि विश्वामित्र ने राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांगा और अपने साथ आश्रम ले आए। भगवन राम उस समय बालक ही थे, लेकिन पराक्रम ऐसा था कि उन्होंने मारीच पर बिना फण का बाण छोड़ा, और उसकी चोट से मारीच 100 योजन दूर जा गिर। वहीँ लक्ष्मण भी कोई कम नहीं थे, उन्होंने क्षण भर में कई राक्षसों को मार गिराया। उनके पराक्रम को देख आश्रम के सभी ऋषि गदगद हो गए और निर्विघ्न यज्ञ का आयोजन किया। श्रीराम कुछ दिनों आश्रम में रहे। विश्वामित्र कथा सुनाते, और दोनों भाई बैठकर सुनते।
कुछ समय बाद मिथिला से धनुर्यज्ञ का निमंत्रण आया, तो महर्षि विश्वामित्र दोनों भाइयों को लेकर राजा जनक की नगरी मिथिला चल पड़े। चलते-चलते वे एक शिला के पास पहुंचे। श्रीराम ने पूछा कि यह क्या है? विश्वामित्र ने बताया कि महर्षि गौतम के श्राप से उनकी पत्नी अहिल्या पत्थर की बन गईं, ये वही हैं। आपके चरणों की धूल चाह रही हैं। श्रीराम खड़े होकर विचार करने लगे, और कहा कि मैंने क्षत्रिय कुल में जन्म लिया है, और ये ब्राह्मण कन्या हैं, मैं इन्हे चरण कैसे लगा सकता हूं? ये मेरी मर्यादा नहीं है, कहकर उन्होएँ अपने हाथों से स्पर्श कर माता अहिल्या को शाप से मुक्त किया। माता अहिल्या ने श्रीराम के दर्शन कर कहा कि मैं अपने पति की आभारी हूं कि उन्होंने मुझे शाप दिया और मुझे आपके दर्शन हुए।
ओमानंद महाराज ने आगे कहा कि वे तीनो मिथिला पहुंचे और वहां की सुंदरता को देख मंत्रमुग्ध हो गए। ऐसी सुन्दर नगरी मानो स्वयं कामदेव ने इसका निर्माण किया हो। राजा जनक को महर्षि विश्वामित्र के आगमन का समाचर मिला तो उन्होंने अपने दूतों को उन्हें लाने भेजा। राजा जनक ने महर्षि विश्वामित्र के चरण छूए, राम लक्ष्मण को देख उन्होंने पूछा ये बालक कौन हैं? महर्षि ने उनका परिचय करवाया। राजा जनक ब्रह्म ग्यानी थे, लेकिन श्रीराम को देख वे मंत्रमुग्ध हो गए।
जब वे भोजन के लिए बैठे तो लक्ष्मण ने राम से कहा कि चलो नगर देख आएं, तो राम ने कहा कि पहले महर्षि से आज्ञा ले लें। वे महर्षि के पास आये और कहा कि लक्ष्मण नगर देखना चाहता है, क्या मैं उसे नगर भ्रमण के लिए ले जाऊं? तब महर्षि ने कहा कि नगर देखने जाओ, लेकिन आप अपनी सुंदरता की चाप मिथिला में छोड़ देना, मिथिला की सुंदरता की छाप अपने में मत लेना।
दोनों भाई नगर भ्रमण को निकले, पूरे नगर में शोर हो गया कि दो राजकुमार नगर भ्रमण को निकले हैं। वहीं मिथिला की राजकुमारी सीता की सखियों ने भी दोनों सुकुमारों के देखा और कहा कि अगर श्रीराम का विवाह सीता संग हो जाएगा तो सबका कल्याण हो जाएगा। ऐसा कहकर उन्होंने एक पुष्प अपने हाथों में लिया और राम सीता के पति हो जाएं कहकर उनकी ओर फेंका।
नगरभ्रमण के बाद दोनों भाई रात्रि विश्राम के लिए महर्षि के पास पहुंचे। प्रातः काल महर्षि की पूजा के लिए दोनों भाई बगीचे में फूल तोड़ने पहुंचे। वह श्रीराम ने माली से पूछा कि हमें पूजा के लिए फूल तोड़ने है, तो माली ने कहा कि बगीचे में केवल महिलाएं जा सकती हैं। वहीं दूसरी ओर महारनी सुनैना ने अपनी पुत्री सीता को माता पार्वती की पूजा के लिए भेजा। ओमानंद महाराज ने कहा कि यह ऐसा संयोग था जिसके लिए सभी प्रतीक्षा कर रहे थे। वहीं श्रीराम और लक्ष्मण को माली ने रोक रखा था। माली ने कहा कि या तो आप स्त्री भेष में जा सकते हैं, या फिर मिथिला की राजकुमारी के जयकारे लगाकर। श्रीराम ने बिना कुछ सोचे सीता के नाम का जयकार लगाया और बगीचे में प्रवेश कर गए।