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मनुष्य हाड़-मांस का पुतला नहीं है वह एक चेतना है(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

  • ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात।
    *मनुष्य हांड मांस का पुतला ही नही है*
    इस तथ्य को हमें हजार बार समझना चाहिए कि मनुष्य हाड़-मांस का पुतला नहीं है। वह एक चेतना है। भूख चेतना की भी होती है। विषाक्त आहार से शरीर मर जाता है और भ्रष्ट चिंतन से आत्मा की दुर्गति होती है। प्रकाश न होगा तो अंधकार का साम्राज्य ही होना है। सद्ज्ञान का आलोक बुझ जाएगा तो अनाचार की व्यापकता बढ़ेगी ही। भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट कर्तृत्व का परिणाम व्यक्ति और समाज की भयानक दुर्दशा के रूप में सामने आ सकता है।जो व्यक्ति कठिनाइयों या प्रतिकूलताओं से घबड़ाकर हिम्मत हार बैठा,वह हार गया और जिसने उनसे समझौता कर लिया, वह सफलता की मंजिल पर पहुँच गया। इस प्रकार हार बैठने, असफल होने या विजयश्री और सफलता का वरण करने के लिए और कोई नहीं, मनुष्य स्वयं ही उत्तरदायी है। चुनाव उसी के हाथ में है कि वह सफलता को चुने या विफलता को। वह चाहे तो कठिनाइयों को वरदान बना सकता है और चाहे तो अभिशाप भी।हास-परिहास स्वस्थ होता है, किन्तु दूसरों का उपहास सदा कलहकारी एवं हानिकर होता है। खिल्ली उड़ाना तथा विनोद करना दो सर्वथा भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं। खिल्ली उड़ाने वाली प्रवृत्ति प्रारंभ में भले ही रोचक प्रतीत हो, किन्तु उसका अंत सदा आपसी दरार, तनाव और कटुता में होता है।जो मितव्ययी हैं, उन्हें संसार की निरर्थक लिप्साएँ लोलुप बनाकर व्यग्र नहीं कर पातीं। वे अपनी आर्थिक परिधि में पाँव पसारे निश्चिन्त सोया करते हैं। उन्हें केवल उतना ही चाहिए जितना उनके पास होता है। संसार की बाकी चीजों से न उन्हें कोई लगाव होता है और न वास्ता। ऐसे निश्चिन्त एवं निर्लिप्त मितव्ययी के सिवाय आज की अर्थप्रधान दुनिया में दूसरा सुखी नहीं रह सकता।आज अनेकों ऐसी पुरानी परम्पराएँ एवं विचारधाराएँ हैं, जिनको त्याग देने से अतुलनीय हानि हो सकती है। साथ हीे अनेकों ऐसी नवीनताएँ हैं, जिनको अपनाए बिना मनुष्य का एक कदम भी बढ़ सकना असंभव हो जायेगा। नवीनता एवं प्राचीनता के संग्रह एवं त्याग में कोई दुराग्रह नहीं करना चाहिए, बल्कि किसी बात को विवेक एवं अनुभव के आधार पर अपनाना अथवा छोड़ना चाहिए।ओजस्वी ऐसे ही व्यक्ति कहे जाते हैं, जिन्हें पराक्रम प्रदर्शित करने में संतोष और गौरव अनुभव होता है, जिन्हें आलसी रहने में लज्जा का अनुभव होता है, जिन्हें अपाहिज, अकर्मण्यों की तरह सुस्ती में पड़े रहना अत्यन्त कष्टकारक लगता है, सक्रियता अपनाये रहने में, कर्मनिष्ष्ठा के प्रति तत्परता बनाये रहने में जिन्हें आनन्द आता है।अनीति को देखते हुए भी चुप बैठे रहना, उपेक्षा करना, आँखों पर पर्दा डाल देना, जीवित मृतक का चिह्न है। जो उसका समर्थन करते हैं, वे प्रकारान्तर से स्वयं ही दुष्कर्मकर्त्ता हैं। घड़ी पास में होने पर भी जो समय के प्रति लापरवाही करते हैं, समयबद्ध जीवनक्रम नहीं अपनाते, उन्हें विकसित व्यक्तित्व का स्वामी नहीं कहा जा सकता। घड़ी कोई गहना नहीं है। उसे पहनकर भी जीवन में उसका कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं होने दिया जाता तो यह गर्व की नहीं, शर्म की बात है। समय की अवज्ञा वैसे भी हेय है, फिर समय-निष्ठा का प्रतीक चिह्न (घड़ी) धारण करने के बाद यह अवज्ञा तो एक अपराध ही है।
    *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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