छत्तीसगढ़

संपत्ति भगवन की है, इसके सेवक बनें, मालिक नहीं : ओमानंद महाराज

रायपुर। राजधानी के संतोषी नगर स्थित माता कर्मा धाम में आयोजित श्रीरामकथा का अष्टम दिवस बेहद भावनात्मक रहा। कारण था राम-भरत मिलाप। इस प्रसंग को सुनकर श्रद्धालु भावविभोर हो उठे। कई लोगों की आंखों से अश्रुधार बह पड़ी। इतना मार्मिक है यह प्रसंग। कथाकार ओमानंद स्वामी के कथा प्रारंभ करते हुए कहा कि भरत अपने ननिहाल से लौटे, पिता के निधन से विचलित थे,  दुखी थे, लेकिन इस बात का उन्हें ज्यादा दुःख था कि उनके अग्रज श्रीराम 14 वर्ष के वनवास पर चले गए थे। गुरु वशिष्ठ ने उन्हें सिंहासन पर विराजमान होने कहा, वे नहीं माने। माताओं ने कहा, वे नहीं माने। अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन किया? पिता की बात काटी, माता की बात काटी, गुरु की भी बात काट दी, क्या भरत ने आज्ञा का उल्लंघन किया? ओमानंद महाराज ने इसका आशय भी समझाया।

भरत को गुरु वशिष्ठ समझा रहे हैं कि आप सिंहासन पर बैठ जाएं, उचित-अनुचित का विचार न करें। जो माता-पिता की आज्ञा का पालन करता है, वह स्वर्ग जाता है। माता कौशल्या ने भी समझाया, कहा- विधि का विधान समझकर बैठ जाओ। लेकिन भरत अड़े रहे। उन्होंने कहा- गुरुदेव, आप जो कह रहे हैं, वह सही है। मैं अपने पिता की आज्ञा का पालन करूंगा। गुरुदेव आपने बड़ा सुन्दर उपदेश दिया है। मैं आपसे कुछ कहना चाहता हो, अगर कुछ त्रुटि हो तो बालक समझकर क्षमा कर देना। माता कैकेयी ने क्या वचन माँगा था? पहला वचन था मेरा राज्याभिषेक, दूसर श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास। परन्तु पहला वचन पूरा होने से पहले दूसरा वचन पूरा कर दिया गया। वह भी जोर देकर। क्या यह उचित है? मेरे राज्याभिषेक से पहले श्रीराम को वनवास के लिए भेज दिया गया, क्या यह उचित है गुरुदेव? गुरु वशिष्ठ निरुत्तर हो गए।

इसेक बाद भरत ने कहा कि मैं प्रभु राम के दर्शन करना चाहता हूं, तभी मेरा मन शांत होगा। श्रीराम से भेंट करने भरत के साथ तीनो माता, गुरु वशिष्ठ, राजा जनक समेत कई लोग रवाना होते हैं। जब वे ऋंगवेरपुर पहुंचे तो निषादराज गुह को पता चला कि भरत अपने साथ सेना लेकर आ रहे हैं। उन्हें लगा कि भरत श्रीराम पर आक्रमण करने आ रहे हैं। उन्होंने सभी केवटों को आदेश दिया कि सभी अपनी नौकाओं को पलटा दें, हमें श्रीराम की रक्षा करनी है, भरत से युद्ध लड़ना है। अगर इस युद्ध में हम मर गए तो हमें मोक्ष मिलेगा, अगर जीत गए तो यश मिलेगा। तभी एक वृद्ध केवट ने कहा कि भरत राम से युद्ध करने नहीं, उन्हें मनाने आ रहे हैं। हमें जल्दबाजी में निर्णय नहीं लेना चाहिए, आगे पछताना पड़ सकता है। निषाद राज ने सोचा कि मैं चलकर देखता हूँ। निषाद राज अकेले ही भरत से मिलने चल पड़े। जब गुरु वशिष्ठ ने देखा तो भरत से कहा कि ये निषादराज गुह हैं, श्रीराम के बालसखा। यह सुनकर भरत ने रथ से उतरे  और दौड़कर निषादराज को गले से लगा लिया। निषादराज ने सभी को गंगा पार कराकर चित्रकूट पहुंचा दिया। जब लक्ष्मण को पता चला तो वह भी गुस्से से लाल हो गए। कहा कि अब भरत सेना लेकर हमें मारने आया है, आने दो, समर शैया में सुला दूंगा दोनों भाइयों को। श्रीराम ने उन्हें शांत कराया।

जैसे ही राजकुमार भरत अपने बड़े भाई श्री राम को देखते हैं, वे उनके पैरों में गिर जाते हैं और उन्हें दण्डवत प्रणाम करते हैं, साथ ही साथ उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहती हैं। भगवान राम भी दौड़ कर उन्हें उठाते हैं और गले से लगा लेते हैं, दोनों ही भाई आपस में मिलकर भाव विव्हल हो उठते हैं, अश्रुधारा रुकने का नाम ही नहीं लेती और ये दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग भी भावुक हो जाते हैं। तब राजकुमार भरत पिता महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार बड़े भाई श्री राम को देते हैं और इस कारण श्री राम, माता सीता और छोटा भाई लक्ष्मण बहुत दुखी होते हैं. भगवान राम नदी के तट पर अपने पिता महाराज दशरथ को विधि – विधान अनुसार श्रद्धांजलि देते हैं और अपनी अंजुरी में जल लेकर अर्पण करते हैं।

भगवान राम भरत से वन आगमन का कारण पूछते हैं।भरत अपनी मंशा उनके सामने उजागर करते हैं कि वे उनका वन में ही राज्याभिषेक करके उन्हें वापस अयोध्या ले जाने के लिए आए हैं और अयोध्या की राज्य काज संबंधी जिम्मेदारी उन्हें ही उठानी हैं, वे ऐसा कहते हैं। महाराज जनक भी राजकुमार भरत के इस विचार का समर्थन करते हैं। परन्तु श्री राम ऐसा करने से मना कर देते हैं, वे अयोध्या लौटने को सहमत नहीं होते क्योंकि वे अपने पिता को दिए वचन  से बंधे हुए हैं। राजकुमार भरत, माताएँ और अन्य सभी लोग भगवान राम को इसके लिए मनाते हैं, परन्तु वचनबद्ध होने के कारण भगवान श्री राम ऐसा करने से मना कर देते हैं। तब राजकुमार भरत बड़े ही दुखी मन से अयोध्या के लिए प्रस्थान करने की तैयारी करते हैं, परन्तु प्रस्थान से पूर्व वे  भैया राम से कहते हैं कि “अयोध्या पर केवल श्री राम का ही अधिकार हैं और केवल वनवास के 14 वर्षों की समय अवधि तक ही मैं [भरत] उनके राज्य का कार्यभार संभालूँगा और इस कार्य भार को सँभालने के लिए आप मुझे आपकी चरण – पादुकाएं  दे दीजिये, मैं इन्हें ही सिंहासन पर रखकर, आपको महाराज मानकर, आपके प्रतिनिधि के रूप में 14 वर्षों तक राज्य काज पूर्ण करूंगा, परन्तु जैसे ही 14 वर्षों की अवधि पूर्ण होगी, आपको पुनः अयोध्या लौट आना होगा अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।”

राजकुमार भरत के ऐसे विचार सुनकर और उनकी मनःस्थिति को देखकर राजकुमार लक्ष्मण को भी उनके प्रति अपने क्रोध पर पश्चाताप होता हैं कि उन्होंने इतने समर्पित भाई पर किस प्रकार संदेह किया और उन्हें इन दुखी घटनाओं के घटित होने का कारण समझा. भगवान श्री राम भी अपने छोटे भाई भरत का अपार प्रेम, समर्पण, सेवा भावना और कर्तव्य परायणता देखकर उन्हें अत्यंत ही प्रेम के साथ  गले से लगा लेते हैं। वे  छोटे भाई राजकुमार भरत को अपनी चरण पादुकाएं देते हैं और साथ ही साथ भरत के प्रेमपूर्ण आग्रह पर ये वचन भी देते हैं कि जैसे ही 14 वर्षों की वनवास की अवधि पूर्ण होगी, वे अयोध्या वापस लौट आएंगे. अपने बड़े भाई श्री राम के इन वचनों को सुनकर राजकुमार भरत थोड़े आश्वस्त होते हैं और उनकी चरण पादुकाओं को बड़े ही सम्मान के साथ अपने सिर पर रखकर बहुत ही दुखी मन से अयोध्या की ओर प्रस्थान करते हैं. अन्य सभी परिवार जन भी एक – दूसरे से बड़े ही दुखी मन से विदा लेते हैं।

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