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कार्ल मार्क्स @205 : सिर्फ आस्था और अंधश्रद्धा या विज्ञान प्रमाणित प्रासंगिकता?

*(मार्क्स जयंती पर विशेष आलेख : बादल सरोज)*

5 मई 2023 को मार्क्स 205 वीं सालगिरह है। 1848 में एंगेल्स के साथ मिलकर लिखे उनके कम्युनिस्ट घोषणापत्र को 175 और इन दोनों की कालजयी किताब पूँजी (दास कैपिटल) को आये 156 वर्ष हो गए। क्या यह विचार पुराना नहीं हो गया? यह आज भी प्रासंगिक है या उनके कुछ अनुयायियों के लिए जड़ आस्था और अंध-श्रद्धा का मामला है? यह सवाल तब और बड़ा हो जाता है, जब पिछले कुछ दशकों में दुनिया में उनके विचार पर चलने वाले देशों में ही उलटे बांस बरेली को लदे हैं, भारत सहित बाकी कई देशों में भी इसकी संसदीय शक्ति में पिछाहट दिखी है। ऐसे सवालों के जवाब ढूँढने का एक ही तरीका है और वह यह कि उसे विज्ञान, तार्किकता और वास्तविकता की कसौटी पर कस कर देखा जाए। मार्क्सवाद को तो खासकर क्योंकि उसका दावा है कि वह एक वैज्ञानिक दर्शन और विचार है।

मार्क्स ने खुद और अक्सर फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर जो लिखा है, उसके 50 मोटे-मोटे ग्रन्थ आ चुके हैं, इनमें 1968 विषयों पर काम है। इनके अलावा 3957 चिट्ठियां हैं, जिनमे विचार मीमांसा है। पत्रकार के रूप में सिर्फ ट्रिब्यून के लिए लिखे उनके करीब 500 लेख हैं और अभी भी काफी काम बचा है, जिसका अंग्रेजी में अनुवाद किया जाना बाकी है। इत्ते सब में मार्क्स ने जो 4 मौलिक, युगांतरकारी और बड़ी बातें कहीं थी, क्या वे आज सही हैं? क्या वे आज भी प्रासंगिक हैं? चलिए यही देखते हैं।

दुनिया के सामने सबसे बड़ा झंझट था कि ये दुनिया चीज क्या है? कहाँ से आई?? कैसे बनी??? जरूर किसी न किसी ने बनाया होगा, क्योंकि किसी के बनाये बिना कैसे बनेगा कुछ? जरूर कोई है सब कुछ बनाने वाला!! हालांकि इसमें भी पेंच था कि जिसने सब बनाया, उसे किसने बनाया?? बहरहाल – हजारों साल यही सोचते-विचारते खर्च हो गए। मार्क्स ने इस गुत्थी को दो तरीके से सुलझाया।

एक : उन्होंने कहा मूल में पदार्थ है – जो भी है, वह पदार्थ है – अलग अलग रूपों में पदार्थ है। इसे ही उन्होंने भौतिकवाद कहा – जिस शब्द को बाद में धूर्तों ने उपभोगवाद बताकर बदनाम करने की कोशिश की। मार्क्स का भौतिकवाद भोगवाद नहीं है – पदार्थवाद है।

दो : उन्होंने कहा कि यह स्थिर या ठहरा हुआ नहीं है। इस पदार्थ में गति होती है। उस गति के नियम होते हैं — इन नियमों को उन्होंने द्वंद्ववाद कहा और बताया कि इन नियमों के आधार पर वह अपने रूप बदलता रहता है।

मार्क्स के बाद की सारी वैज्ञानिक खोजों ने उनकी बात सही साबित की। दो वर्ष पहले फिजिक्स के नोबल पुरूस्कार में तीन सम्मानित वैज्ञानिकों ने ब्लैकहोल और बिगबैंग के प्रमाण ढूंढ कर ब्रह्माण्ड की रचना के प्रमाण और पदार्थ की अनित्यता के उदाहरण ढूंढ लिए। केमिस्ट्री – रसायन विज्ञान के नोबल पाने वाले दो वैज्ञानिकों ने एक कमाल की छोटी कैंची खोजी है। शरीर के सबसे छोटे किन्तु सबसे निर्णायक कण डीएनए में मौजूद ज़ीनोम की काटछांट कर उसे सही तरीके से बदलने वाली कैंची। इसे जेनेटिक सीजर का नाम दिया गया है। इसके जरिये जन्म से पहले ही संभावित आशंकाओं को दूर किया जा सकता है – देर सबेर आयु को भी जीता जा सकता है।

मार्क्स की दूसरी बात इतिहास का गड़बड़झाला ठीक करने की थी। उन्होंने बताया कि समाज कैसे बना, किस तरह से विकसित हुआ, यहां तक कैसे पहुंचा? इसके नियम क्या हैं?? उनके आधार पर उन्होंने साबित किया कि यह यहीं रुकने वाला नहीं है। आगे और विकसित होगा — बेहतरी की तरफ जाएगा। अब तक के इतिहास में यह सही साबित हुआ है। ताजे वर्तमान में भी सटीक निकला है। इसमें उन्होंने तीन नयी बातें बताईं।

एक : समाज वर्गों में बंटा है, इसलिए सबका राज नाम की चीज नहीं होती, एक वर्ग दूसरे पर राज करता है।

दो : पैदावार की ताकतों के विकास के साथ उसके नतीजे में सामाजिक रिश्तों, जीवन की एक अवस्था से दूसरी अवस्था आती है। विकास का आधार उत्पादन की प्रणाली है। यही निर्णायक है।

तीन : दार्शनिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक विचार और विचारधारा इसी ढांचे पर खड़ी होती है। मगर वह इस ढाँचे के साथ अंतर्क्रिया भी करती है। मार्क्स के जमाने से आज तक इसकी पुष्टि कई तरह से – हर तरह से हुयी। दुनिया में अलग अलग अवस्थाओं की स्थिति, पूंजीवाद में न्यायप्रणाली सहित राजसत्ता की स्थिति और शासक वर्गों के विचार के प्रभुत्व और वर्चस्व और उसका राज करने के लिए इस्तेमाल के अनुभवों से हम खुद अपनी आँखों से देख रहे हैं ।

तीसरी बात थी राजनीतिक अर्थशास्त्र। उनकी भविष्यवाणियां थीं कि : पूंजी का केन्द्रीयकरण होते-होते अति केन्द्रीकरण तक जाता है, कि छोटे उत्पादन गायब हो जाते है — मोनोपोली कायम होती है, असमानता की खाई लगातार चौड़ी होती है, समाज की वंचना बढाती है। उनकी सबसे बड़ी खोज थी मुनाफे का कारण खोजना और बताना कि मुनाफे की हवस अमानवीय और आपराधिक होती है। यह सत्यानाशी लिप्सा सर्वनाशी होती है। आंकड़ों में जाए बिना सार में सिर्फ कोरोना महामारी को देख लीजिये। लॉकडाउन में जनता का क्या हुआ और अंबानी और अडानी कहाँ पहुंचे? यह हवस ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाकर पृथ्वी को ही चौपट करने पर आमादा है। इसी केन्द्रीकरण का दूसरा रूप 2022 में ही भारत से अनुमानत: 200 अरब डॉलर, जो भारत के विदेशी मुद्रा संचित कोष के तिहाई हिस्से के बराबर है, का उड़कर अमरीका की तरफ बाहर चले जाना है।

मार्क्स की चौथी बात थी कि वर्ग संघर्ष ही समाज की चालक शक्ति है। इसमें कुछ ख़ास बातें कही।

एक : वर्ग संघर्ष सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर ही नहीं — सारे मोर्चों पर चलता है। संस्कृति, साहित्य, जीवन शैली और विचार में भी चलता है। किसी भी युग का हावी विचार सत्ता वर्ग का विचार होता है।

दो : पूंजीवाद अपने माल के लिए नए तरह के लोग पैदा करता है।

तीन : अपना वैचारिक वर्चस्व कायम करने के लिए वह मीडिया, शिक्षा, पुरोहित, परिवार, फिल्म, साहित्य, आदि-आदि सबका इस्तेमाल करता है। इसलिए असली वर्ग संघर्ष चौतरफा और बहुआयामी होता है। होना ही होगा। अपने विचार का प्रचार ही नहीं, विरोधी विचारों का खंडन भी करना होगा। कहने की जरूरत नहीं कि वे यहाँ भी सही साबित हुए।

आख़िरी बात : मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवाद एक संकटग्रस्त अवस्था है। एक संकट से दूसरे में फंसती जाती है। मगर अपना बोझ दूसरे पर डालने का रास्ता भी निकालती जाती है। समाधान इसके पास नहीं है। आज नवउदारवाद जिस दीर्घकालीन संकट में फंस गया है, उसके असर से पश्चिमी साम्राज्यवाद अंदर से बैठ रहा है। दुनिया आज एक बदलाव के मुहाने पर खड़ी नजर आती है और पश्चिमी ताकतें अति-आक्रामक रुख अपनाकर, इस बदलाव को रोकने की बदहवास कोशिशें कर रही हैं।

मगर जैसा कि उन्होंने कहा था कि बदलाव अपने आप नहीं होते, उन्हें ठोस परिस्थितियों के ठोस अध्ययन और विश्लेषण के बाद ठोस कार्यनीति बनाकर किया जाना होता है। लिहाजा मार्क्स का विचार समय और विज्ञान दोनों की कसौटी पर सही प्रमाणित हुआ है। जरूरत उसे उसी सही तरीके से व्यवहार में लाने की है।

इस टिप्पणी का अंत एक सत्यकथा से।
एक समारोह में अर्थशास्त्र के नोबल पुरुस्कार विजेता, अमरीका के दो-दो राष्ट्रपतियों के आर्थिक सलाहकार रहे और नवउदार आर्थिक दर्शन के ब्रह्मा माने जाने वाले जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ अपने हाथ में जाम लिए अचानक से आकर एरिक हॉब्सबाम के सामने आ खड़े हुये। तब 90 पार कर चुके एरिक होब्सबाम दुनिया के उस वक़्त जीवित इतिहासकारों में सबसे बड़े नाम थे और इतने पक्के मार्क्सवादी थे कि नियम से अपनी पार्टी सदस्यता का नवीनीकरण कराया करते थे।

स्टिग्लिट्ज़ बोले : यार ये तुम्हारा बड़बब्बा (ग्रैंड ओल्ड मैन) कितना दूरदर्शी था। उसने सवा सौ साल से भी पहले ही बता दिया था कि हम लोग क्या-क्या पाप करेंगे!! कैसी-कैसी बीमारियां फैलाएंगे? हॉब्सबाम ने पूछा : कौन? मार्क्स!! स्टिग्लिट्ज़ ने कहा : हाँ, अभी फिर से पूंजी (दास कैपिटल) पढ़ी। क्या सचित्र नक्शा खींचा है मार्क्स ने, लगता है जैसे हमारी कारगुजारियां देख कर लिख रहा है।

हॉब्सबाम : क्या बात है जोसेफ़, आज मार्क्स की तारीफ़ कर रहे हो! ज्यादा चढ़ गयी है क्या!! स्टिग्लिट्ज़ : अरे अभी तो चखी तक नहीं है। देखो वैसे का वैसा ही है जाम। मार्क्स ने सचमुच में अभिभूत कर दिया। यहाँ, तुम सबसे बड़े दिखे तो लगा कि कह दूं। इसके बाद दुआ सलाम और खैरियते पूछने की रस्म के बाद जोसेफ स्टिगलिट्ज़ अपनी प्रशंसक और सजातीय बिरादरी की तरफ बढे।

थोड़ा चले थे कि जाते-जाते अचानक फिर लौटे और बोले : सुनो एरिक, अगर बीमारी वही हैं, जो कार्ल मार्क्स ने बताई थीं, तो दवा भी वही लगेगी जो वो बता कर गया।

*(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*

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