छत्तीसगढ़टॉप न्यूज़

पुरखों और प्रकृति को देवी-देवता के रूप में पूजते हैं आदिवासी, गीत-गोविन्द और किस्से कहानियों में होती है वाचिकता

*वाचिकता और मौखिक परंपरा पुरखों से मिलती है किताबों से नहीं*

रायपुर, 25 मई 2023/ जनजातीय समुदाय पुरखों और प्रकृति को देवी-देवता मानकर उनकी आरधना करते है। गीत-गोविन्द, किस्से कहानियों और लोकसंगीतों में वाचिकता मौजूद होती है। वाचिकता और मौखिक परंपरा किताबों से नहीं, बल्कि पुरखों और बुजुर्गों से मिलती है। उक्त बाते आज नवा रायपुर स्थित जनजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान में आयोजित तीन दिवसीय वाचिकोत्सव में विशेषज्ञों और आदिवासी समुदाय के सदस्यों ने कहा।

गौरतलब है कि मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की पहल पर राज्य में जनजातीय समुदायों की वाचिक और मौखिक परंपरा के संरक्षण के लिए अभिलेखिकरण के साथ ही इस परंपरा से अगली पीढ़ी को अवगत कराने के उद्देश्य से तीन दिवसीय जनजातीय वाचिकोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। आदिम जाति तथा अनुसूचित जनजाति विकास मंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह टेकाम ने आज आदिम जाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान में 3 दिवसीय ’जनजातीय वाचिकोत्सव 2023’ का शुभारंभ किया।

कार्यशाला में जनजातीय देवी-देवता एवं मड़ई मेला के संबंध में वाचिक ज्ञान, लोक कहानियां, कहावतें एवं लोकोक्तियां और लोक संगीतों में वाचिकता व मौखिक परंपरा की मौजूदगी के संबंध में विषय-विशेषज्ञों तथा जनजातीय समुदाय के सदस्यों ने विस्तारपूर्वक चर्चा की।

रांची (झारखण्ड) से आये विषय-विशेषज्ञ श्री अश्वनी पंकज ने कहा आदिवासी तौर-तरीकों को सहजने की प्रक्रिया को सहभागिता कहते है। वाचिक परंपरा में कोई गुरू या शिष्य प्रधान नहीं होता। एक दूसरे से सुनकर या बोलकर अथवा विभिन्न विधाओं के माध्यम से इसे आत्मसात् किया जाता है। आदिवासियों की वाचिक और मौखिक परंपरा को सहेजने की जरूरत है। राज्य सरकार ने इस दिशा में पहल की है, यह सराहनीय है। उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदाय में कोई उच्च-नीच अथवा स्तरीयकरण नहीं है, पुरूष-स्त्री समान है, हांलकि जनजातीय समुदाय में मातृत्व प्रधान है, लेकिन इसका आशय शक्ति (सत्ता) से नहीं, बल्कि घर परिवार और समाज की सुरक्षा से है।

नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली के श्री पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि छत्तीसगढ़ भाषा और बोली के मामले में काफी समृद्ध है। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक तथ्य है कि जितनी अधिक बोली-भाषा होंगी, उतनी ही जैव-विविधता होगी, हमें इन दोनों को ही बचाना है। जनजातीय समुदाय की भाषा-बोली की रक्षा के साथ ही अन्य समाज के लोगों को भी इसके प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए। कोण्डागांव निवासी श्रीमती जयमती कश्यप वाचिक और मौखिक परंपरा को छट्ठी कार्यक्रम का उदाहरण देकर बताया कि छट्ठी वाचिक परंपरा का ही स्वरूप है। प्रायः सभी समजों में छट्ठी कार्यक्रम किए जाते है। छट्टी कार्यक्रमों में बच्चों को संस्कार देने व वाचिकता को आने वाली पीढ़ी को बताने और सिखाने के लिए किया जाता है।

बस्तर के ग्राम पोटानार निवासी बाबूलाल बघेल ने जनजातियों में देवी-देवता में परिचर्चा में बताया कि वे मुंडा जनजाति के सदस्य है। तत्कालिन राजा के समय में माता दंतेश्वरी के अराधना और प्रार्थना के लिए मुंडा बाजा के साथ मां दंतेश्वरी की अराधना करने का रिवाज है तब से लेकर अब तक 75 दिनों तक चलने वाली बस्तर दशहरा के दौरान मुंडा बाजा के माध्यम से मां दंतेश्वरी की अराधना करने की परंपरा चली आ रही हैं।

सरगुजा संभाग के बलरामपुर से आये श्री करणनाथ नगेशिया ने बताया कि उनका मातृ बोली सदरी है। नागदेव उनका टोटम है, प्रकृति की उत्पति की कहानी इन्हीं पर प्रचलित है। उनके क्षेत्र में आदिवासियों में मड़ई मेला मनाने की परंपरा प्रचलित नहीं है, लेकिन आदिवासियों ने जरूरत की वस्तुओं के लिए आदिवासी समुदाय में मेल-मिलाप की परंपरा है। ग्रामदेवता, बड़ादेव, बूढ़ादेव, कुदरगढ़हिन, धरतीमाई, गोड़ीमाई, महामाई को देवी-देवताओं के रूप में पूजा-अराधना कर जल, जंगल, जमीन, गांव की सुरक्षा, फसल की सुरक्षा, दुख तकलीफों को दूर करने के लिए अराधना की जाती है। इसके लिए ग्राम में एक देवगुड़ी में जाकर देवी-देवता को मनाने की परंपरा है।

Show More

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button