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बिहार चुनाव : पहले चरण में रिकॉर्डतोड़ मतदान, किस ओर है जनता का रुझान?

नई दिल्ली (एजेंसी)। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की वोटिंग पूरी हो चुकी है, और मतदाताओं ने इस बार ज़बरदस्त उत्साह दिखाया है. गुरुवार को हुई वोटिंग में 121 सीटों पर 64.69% मतदान दर्ज किया गया है. यह 2020 के पिछले चुनाव के मुकाबले करीब 8% अधिक है और बिहार के चुनावी इतिहास में पहले चरण की यह सर्वाधिक वोटिंग है.

2020 के पहले चरण में 56.1% मतदान हुआ था.

2015 में यह आंकड़ा 55.9% और 2010 में 52.1% था.

इस बार लगभग 36 लाख अधिक मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. 3.75 करोड़ कुल वोटरों में से, 64.69% वोटिंग के साथ, 2.42 करोड़ लोगों ने वोट किया है.

सियासी चर्चा: क्या अधिक वोटिंग बदलाव की ओर इशारा है?
राजनीतिक गलियारों में अब यह बहस छिड़ गई है कि इतनी बड़ी संख्या में हुए मतदान का क्या अर्थ है: क्या यह बदलाव (एंटी-इंकम्बेंसी) का संकेत है, या फिर यह जनता का नीतीश कुमार की सरकार के प्रति समर्थन (प्रो-इंकम्बेंसी) है?

भारतीय चुनावी इतिहास में, यह आम धारणा है कि जब मतदान प्रतिशत बढ़ता है, तो जनता मौजूदा सरकार से असंतुष्ट होकर बदलाव चाहती है. हालांकि, ऐसा हमेशा नहीं होता. कई बार, उच्च मतदान सरकार के प्रति मजबूत समर्थन को भी दर्शाता है. इसलिए, वोटरों की यह सक्रियता किस दिशा में जाएगी, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी.

इतिहास क्या कहता है: जब बंपर वोटिंग से सत्ता बची और गई
पिछले कुछ राज्य चुनावों के नतीजे एक रोचक पैटर्न दिखाते हैं:

अधिक वोटिंग के बावजूद सत्ता की वापसी (प्रो-इंकम्बेंसी)
मध्य प्रदेश (2023): पिछले चुनाव से 2.08% अधिक (77%) मतदान हुआ, फिर भी बीजेपी ने अपनी सरकार बचा ली.

ओडिशा (2014): पिछले चुनाव से 8.35% अधिक (73.65%) मतदान के बावजूद, बीजेडी सत्ता में लौटी.

गुजरात (2012): 11.53% अधिक वोटिंग हुई, और तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार वापस आई.

बिहार (2010): 6.82% अधिक वोट पड़े थे, और जनता दल (यूनाइटेड) गठबंधन ने सत्ता में वापसी की.

निष्कर्ष: भारी मतदान हमेशा सत्ता परिवर्तन का संकेत नहीं देता; यह जनता के मूड और प्रमुख चुनावी मुद्दों पर निर्भर करता है.

अधिक वोटिंग जब बनी सत्ता परिवर्तन का कारण (एंटी-इंकम्बेंसी)
राजस्थान (2023): पिछले चुनाव से करीब 0.39% अधिक (74.45%) वोटिंग हुई, और कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा.

तमिलनाडु (2011): 7.19% अधिक मतदान दर्ज किया गया, जिसके परिणामस्वरूप सत्ताधारी DMK गठबंधन की हार हुई और AIADMK गठबंधन सत्ता में आया.

उत्तर प्रदेश (2012): 13.44% अधिक मतदान हुआ, और तत्कालीन सत्ताधारी बसपा (BSP) हार गई और समाजवादी पार्टी ने सरकार बनाई.

पहले चरण की सीटें: पिछली बार का मुकाबला और मौजूदा त्रिकोण

पहले चरण में दरभंगा, तिरहुत, कोसी, सारण, मुंगेर और भागलपुर – इन छह डिवीजनों की 121 सीटों पर मतदान हुआ.

पिछला परिणाम: पिछली बार इन 121 सीटों में से, एनडीए को 60 और महागठबंधन को 61 सीटें मिली थीं.

मौजूदा स्थिति: इस बार प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी के मैदान में आने से मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है.

वोटिंग में यह अप्रत्याशित वृद्धि दोनों मुख्य गठबंधनों को चौकन्ना कर गई है. एनडीए इसे जनता के विश्वास का प्रतीक बता रहा है, जबकि महागठबंधन इसे बदलाव की आहट मान रहा है.

महिला वोट: इस चुनाव की निर्णायक शक्ति

बिहार की राजनीति में अधिक मतदान के दो संभावित कारण होते हैं: जन असंतोष, या किसी वर्ग विशेष का एकजुट होकर मतदान. इस चुनाव में महिला मतदाताओं की भागीदारी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य रही है.

नीतीश कुमार की ताकत: 2005 के बाद से महिला मतदाता नीतीश कुमार के समर्थन का एक प्रमुख आधार रही हैं. शराबबंदी और साइकिल जैसी योजनाओं से उन्हें महिलाओं का निरंतर समर्थन मिला है. 2020 में यह रुझान थोड़ा कमज़ोर हुआ था.

नए दांव: 2025 में, नीतीश ₹10,000 की सहायता योजना से एक बार फिर महिला वोटरों को साधने की कोशिश में हैं. वहीं, तेजस्वी यादव ने हर महिला को ₹30,000 देने का वादा कर इस वर्ग को लुभाया है.

निष्कर्ष: महिला मतदाताओं का वोट किस गठबंधन की झोली में गया, यह इस चुनाव में सत्ता की दिशा तय करने में सबसे अहम होगा.

आगे की राह: अब दूसरे चरण पर नज़र

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, इस बार वोटिंग का पैटर्न स्थानीय मुद्दों से प्रभावित होगा.

जिन क्षेत्रों में नीतीश की योजनाएं प्रभावी रहीं, वहां एनडीए को फायदा मिल सकता है.

बेरोजगारी और पलायन जैसे मुद्दों से प्रभावित क्षेत्रों में महागठबंधन को लाभ होने की संभावना है.

जनसुराज कई सीटों पर ‘वोट कटवा’ की भूमिका निभा सकती है, जबकि कुछ सीटों पर यह किंगमेकर भी बन सकती है.

अब सबकी निगाहें 11 नवंबर को होने वाले दूसरे चरण के मतदान पर टिकी हैं. इसी से यह तय होगा कि बिहार में हुआ यह रिकॉर्डतोड़ मतदान बदलाव की घंटी है या फिर नीतीश सरकार की निरंतरता का भरोसा. फिलहाल, बिहार की राजनीति का सस्पेंस बरकरार है, जिसके परिणाम 14 नवंबर को सामने आएंगे.

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