बिखरे विपक्ष को अब SIR में दिखा मौका : बिहार की हार के बाद संसद में एकजुटता की आखिरी उम्मीद!

नई दिल्ली (एजेंसी)। बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन को मिली करारी हार से ‘इंडिया’ गठबंधन का मनोबल बुरी तरह से टूटा हुआ है। दूसरी ओर, 1 दिसंबर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र को लेकर सत्ताधारी एनडीए (NDA) का हौसला कई गुना बढ़ गया है।
ऐसे में इंडिया ब्लॉक संसद में अपनी ऊर्जा और एकजुटता बनाए रखने के लिए एक नई रणनीति पर विचार कर रहा है। विपक्ष के भीतर यह मंथन चल रहा है कि उनकी बिखरी हुई शक्ति को एक सूत्र में पिरोने का दम शायद विशेष सघन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) के मुद्दे में ही बचा है। चुनाव आयोग द्वारा देश भर के अधिकांश राज्यों में वोटर लिस्ट के लिए चलाए जा रहे इस अभियान को विपक्ष एक ऐसा साझा विषय मान रहा है, जो उनके आंतरिक मतभेदों को भी कुछ हद तक दूर कर सकता है।
‘एसआईआर’ पर एकजुटता की रणनीति
कई विपक्षी दलों ने संसद सत्र से पहले रविवार को होने वाली सर्वदलीय बैठक में SIR के मुद्दे को मजबूती से उठाने का फैसला किया है।
हालांकि, विपक्ष का एक वर्ग इस बात से आशंकित भी है कि अगर वे SIR के विरोध में ही ज़्यादा समय खर्च करते रहे, तो वे अमेरिका के साथ व्यापार समझौते (Trade Deal), अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयानों, और हाल ही में दिल्ली में हुए कार बम धमाके जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार को घेरने का मौका चूक सकते हैं।
विरोध की अनिवार्यता और चुनौती
यह एक स्थापित तथ्य है कि पिछले सत्र में भी विपक्ष ने बिहार में हुए एसआईआर को एक बड़ा मुद्दा बनाने की पूरी कोशिश की थी, लेकिन सरकार अपने प्रमुख विधेयकों को पारित कराने में सफल रही और एसआईआर के भारी विरोध को ‘घुसपैठिया समर्थक अभियान’ के रूप में पेश करने में भी कामयाब रही।
विपक्ष के कुछ दलों को अब भी इसी तरह का डर सता रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जिन राज्यों में आने वाले महीनों में चुनाव होने हैं, वहां एसआईआर का मुद्दा अकेले कांग्रेस के लिए ही नहीं, बल्कि तृणमूल कांग्रेस (TMC), डीएमके (DMK), समाजवादी पार्टी (SP) और वामपंथी दलों (Left Parties) के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस प्रकार, यह विपक्ष के लिए एक ऐसा बड़ा मुद्दा है, जिसमें उन्हें साथ लाने की क्षमता है।
मजबूरी की राजनीति: एसआईआर ही बना हथियार
कई राज्यों में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले विपक्षी दलों के लिए एसआईआर ही सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस पर वे आसानी से सरकार के खिलाफ एकजुट हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) और शरद पवार की एनसीपी (एसपी) भले ही कांग्रेस से कुछ अलग दिख रही हों, लेकिन स्थानीय निकाय चुनावों में वोटर लिस्ट को लेकर वे चुनाव आयोग से उलझ रही हैं। इसी मजबूरी की वजह से वे कांग्रेस के साथ एक ही मंच पर खड़े होने को बाध्य हैं।
विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “संसद के शीतकालीन सत्र में एसआईआर का मुद्दा छाया रहेगा। चुनाव आयोग के इस अभियान ने कई राज्यों में ‘इंडिया ब्लॉक’ की पार्टियों को प्रभावित किया है। संसद में सभी एसआईआर के खिलाफ आवाज उठाने के लिए तैयार हैं, जिसकी वजह से यह विरोध बहुत व्यापक होगा।”
बंगाल से केरल तक समान स्थिति
विपक्षी खेमे को उम्मीद है कि जारी एसआईआर अभियान के दौरान कई बूथ लेवल ऑफिसरों (BLO) की आत्महत्या की खबरें इसके विरोध को एक नया और भावनात्मक आयाम प्रदान करेंगी।
ममता बनर्जी की पार्टी ने भले ही पश्चिम बंगाल में एसआईआर के विरोध के दौरान कांग्रेस और लेफ्ट को अपने से दूर रखा हो, लेकिन जब वह संसद में इसका ज़ोरदार विरोध करेगी, तो वह स्वाभाविक रूप से कांग्रेस के साथ खड़ी दिखाई देगी। केरल की सत्ताधारी वामपंथी दलों और विपक्षी कांग्रेस की स्थिति भी संसद के भीतर ऐसी ही रहने वाली है।
विपक्ष की लाचारी: आत्मचिंतन और एकमात्र साधन
बिहार में एसआईआर के विरोध में विपक्ष के शोर-शराबे के बावजूद जो चुनावी जनादेश आया, उसने कहीं न कहीं विपक्ष को आत्मचिंतन करने पर मजबूर ज़रूर किया होगा।
उन्हें यह एहसास हो गया है कि सड़कों पर विरोध करने और अपनी बात को मतदाताओं के दिलों तक पहुँचाने में ज़मीन-आसमान का फर्क है। लेकिन, फिलहाल विपक्ष के पास सरकार के खिलाफ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए इससे बड़ा कोई अन्य प्रभावी साधन दिखाई नहीं दे रहा है।
















