जयशंकर ने भारत की वैश्विक ताकत का किया उल्लेख, कभी भी किसी देश या गुट से नहीं किया गठबंधन

नई दिल्ली (एजेंसी)। विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने सोमवार को भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की नीति को रेखांकित करते हुए विश्व को एक स्पष्ट संदेश दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत ने कभी भी किसी राष्ट्र या समूह के साथ औपचारिक रूप से गठबंधन (alliance) नहीं किया, यहाँ तक कि उस कठिन समय में भी जब देश आर्थिक और सैन्य रूप से काफी कमजोर था। आज, जबकि भारत वैश्विक मंच पर एक मजबूत स्थिति में है, तो ऐसा करने का कोई औचित्य ही नहीं है। वास्तव में, कुछ देशों के आचरण ने इस नीति को और अधिक दृढ़ता से अपनाने का आधार दिया है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज (SIS) की 70वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित अरावली समिट के उद्घाटन सत्र में बोलते हुए, जयशंकर ने उल्लेख किया कि कुछ देशों के व्यवहार ने भारत के लिए रणनीतिक स्वायत्तता की आवश्यकता को और पुख्ता किया है। जयशंकर ने सवाल किया, “कल्पना कीजिए कि अगर आज भारत रणनीतिक स्वायत्तता की नीति नहीं अपनाता, तो हम किस देश के साथ जुड़कर अपना भविष्य उसके हाथों में सौंपना चाहेंगे? दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है।” उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे वैश्विक व्यवस्था अधिक अस्थिर और अप्रत्याशित होती जा रही है, वैसे-वैसे मल्टी-अलाइनमेंट या रणनीतिक स्वायत्तता की प्रासंगिकता निरंतर बढ़ती जा रही है।
वैश्विक उथल-पुथल के बीच भारत का उदय
विदेश मंत्री ने कहा कि भारत का उदय “एक अशांत वैश्विक दौर में हो रही असाधारण यात्रा” है। जयशंकर का यह कथन वर्तमान वैश्विक तनावों, जैसे यूक्रेन संकट, मध्य पूर्व की अस्थिरता, और अमेरिकी व्यापार युद्ध के बीच आया है, जहाँ अमेरिका और कई यूरोपीय देश भारत से एकतरफा गठजोड़ की अपेक्षा कर रहे हैं। जयशंकर ने दृढ़ता से कहा, “भारत ने तब भी किसी के साथ गठबंधन नहीं किया था जब हम बहुत दुर्बल थे। आज, ऐसा करने का कोई कारण नहीं है। सच कहूँ तो, कुछ देशों के रवैये ने रणनीतिक स्वायत्तता के पक्ष को और बल दिया है।”
“केवल एक ही पक्ष था – और वह हमारा पक्ष”
सत्र के दौरान एक छात्र ने जयशंकर से पूछा कि क्या आज भारत की विदेश नीति “किसी पर आश्रित है या स्वतंत्र,” जिस पर उन्होंने कहा कि यह “कुछ हद तक आश्रित और स्वतंत्र भी है।” उन्होंने स्पष्ट किया कि “अतीत में भी, यदि आप भारत-सोवियत संबंधों को देखें, तो हमने जो भी किया वह हमारे राष्ट्रीय हित में था। उस समय हम अमेरिका-पाकिस्तान-चीन त्रिकोण में फंसे हुए थे। वह समय यह कहने का नहीं था कि मुझे तटस्थ रहना चाहिए और इस पक्ष का उतना ही महत्व है जितना उस पक्ष का। केवल एक ही पक्ष था – और वह हमारा पक्ष था। उस पक्ष ने यह निर्धारित किया कि हमारे राष्ट्रीय हित में जो करना है, वही सबसे अच्छा है।” उन्होंने आगे कहा, “आज भी, कई बार देश हमें अंतरराष्ट्रीय कानून के किसी महान सिद्धांत का हवाला देकर दबाव में लाने की कोशिश करते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ, ‘जब यह सिद्धांत हम पर लागू होते थे, तब आप कहाँ थे?’ मैं यह नहीं कह रहा कि ये सिद्धांत मायने नहीं रखते, लेकिन अंत में राष्ट्रीय हित हर चीज से ऊपर है।”
रणनीतिक स्वायत्तता: राष्ट्रीय हित सर्वोपरि
डॉ. जयशंकर का यह बयान भारत की विदेश नीति की लंबी परंपरा को दर्शाता है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद, 1950-60 के दशक में, जब भारत नव-उपनिवेशीकरण के दौर से गुज़र रहा था और आर्थिक रूप से कमज़ोर था, तब नेहरू युग में भी ‘गुटनिरपेक्षता’ (Non-Alignment) की नीति अपनाई गई थी। यह नीति शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ जैसे गुटों से समान दूरी बनाए रखने पर केंद्रित थी।
आज, जबकि भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और QUAD, BRICS तथा G20 जैसे मंचों पर सक्रिय भूमिका निभा रहा है, जयशंकर का संदेश स्पष्ट है: भारत किसी का ‘जूनियर पार्टनर’ बनकर नहीं चलेगा।
रणनीतिक स्वायत्तता का सीधा अर्थ है भारत के हितों को प्राथमिकता देना, न कि किसी महाशक्ति के एजेंडे का हिस्सा बनना। उदाहरण के लिए, भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में तटस्थ रुख अपनाया, ताकि उसकी ऊर्जा सुरक्षा प्रभावित न हो। इसी प्रकार, इज़रायल-हमास संघर्ष में भारत ने मानवीय सहायता तो प्रदान की, लेकिन किसी भी पक्ष का खुलकर समर्थन नहीं किया। विदेश मंत्री ने दोहराया कि “भारत हमेशा वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) की आवाज़ रहेगा। हम अपनी पसंद की स्वतंत्रता बनाए रखेंगे।”